कविता : माटी के अमर लाल कल्पनाथ

05 Jul 2022

मेरी माटी के अमर लाल, 
तू ही तो है वो कल्पनाथ !
तू ही हो जनक अपने मऊ के ।
दूरभाष और चपला का जाल बिछाया ,
आलोकित और सूत्रबद्ध किया प्रतिगत पूर्वांचल को ।
शिक्षालय और आवागमन का भी रखा ध्यान।


रोजगार और विकास को तूने अपना लक्ष्य बनाया,
बेरोजगारों को हुनर सिखाया ।
मिलों और अनुसंधान का भी रखा ध्यान ।
जिससे पुलकित हुए हम सारे ,
वही तो थे हमारे ख्वाब प्यारे।
जिससे हो गया अपनो को गुमान।


विकास के क्षितिज में तुम बने दिवाकर ,
भागे जिसे देख तिमिर।
तुम कर्मयोगी पुत्र थे इस धरा के,
तुम तो वीर थे इस जहां के ।
कर्मपथ पर तुम रहे अजेय अटल।
जब से गये तुम अमर लोक ,
मऊ के विकास का हो गया विलोप।


एक था मैदान तेरे नाम ,
जो भेंट चढ़ा राजनीति के नाम।
निहारता चहुंओर हूँ , 
विकास की वाट को।
जिस पथ पर चले कोई होनहार ,
बनकर विकास का झंडाबरदार।

प्रस्तुति : राजेश कुमार सिंह

स्वतंत्र स्तंभकार।
 



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