कविता : संघर्ष
22 Apr 2022
हां सुनो
अब मेरे लिये त्यौहार मायने नहीं रखते
मायने रखती है तो अब बस वो मंजिल
जिसके लिये न जाने
कितने ख्वाब देखे हैं मैने
और... सबने....
बेसब्री से उसके टूट जाने का।
अब दिवाली के पटाखो में
वो शोर कहां.. जो मेरे
जेहन के शोर को चीर सके
रंगोली के रंगों में अब दिल की
उदासी बखूबी दिख जाती है
हम्म.... तुम नये कपड़ों के लिये रोज
दुकानों के चक्कर लगाते हो
पर हमे तो अब
पुस्तक भंडार के ही रास्ते- पते याद हैं।
हाँ... तुम आईने मे खुद को संवारते हो
और हम वही केमिस्ट्री और फिजिक्स के सिद्धांतो में
खुद का कल छान रहे हैं
पास थे जो लोग मेरे ....
बस मेरी दो असफलता में ही...
तेरी औकात क्या है कह के चलते बने।
रोज सुबह उठते ही...
एक युद्ध आरम्भ हो जाता है
अपनी असफलता के खिलाफ
आलस के खिलाफ
अपने हारते हुये विश्वास के साथ।
हां सुनो !
क्यूं आस लगाये बैठे हो मेरी असफलता का
इस युद्ध में
या तो जीत का तिलक लगेगा
या फिर सिख का उपहार
हारे तो हम तब भी नहीं थे खुद से
और ना ही कल हारेंगे
क्यूंकि सिख लिया है मैने
गिर के फिर से उठ चलने का नायाब तरीका।।
प्रस्तुति : रंजना यादव
बलिया, उत्तर प्रदेश।