गणतंत्र दिवस विशेष : अधूरे हैं संविधान के सुनहरे संकल्प
26 Jan 2022
---विचारणीय---
-आजादी के 75 वर्ष बाद भी नहीं हो सकी आदर्श कल्याणकारी राज्य की स्थापना
-नीति निर्माताओं ने की निदेशक तत्वों की अवहेलना, सत्ता पर पूंजीवाद का प्रभाव
-कागजी बनकर रह गया संविधान में भारतीय नागरिक को जिंदा रहने का अधिकार
मनोज कुमार सिंह
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मऊ : भारतीय संविधान में पुलिसिया राज्य के विरुद्ध एक कल्याणकारी राज्य बनाने का संकल्प दिग्दर्शित होता है। बावजूद इसके 75 वर्षों के शासन के बाद भी हम एक आदर्श कल्याणकारी राज्य स्थापित करने में असफल रहे हैं। हमारे देश के नीति निर्माताओं द्वारा नीति निदेशक तत्वों की अवहेलना, शासन सत्ता पर पूंजीवादी प्रभाव और भावनात्मक राजनीति के बढते चलन-कलन के कारण भारत एक आदर्श कल्याणकारी राज्य के रूप में परिवर्तित नहीं हो पाया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि प्रत्येक भारतीय नागरिक को जिन्दा रहने का अधिकार है, परन्तु यह सर्वविदित तथ्य है कि जीविकोपार्जन के साधनों के अभाव में जिन्दा रहने का अधिकार महज कागजी है। प्रकारांतर से काम के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाये बिना कोई भी राज्य अपने नागरिकों को जिन्दा रहने का अधिकार देने का वादा नहीं कर सकता हैं। आजादी के 75 वर्ष बाद भी हम काम के अधिकार को मौलिक अधिकार नहीं बना पाए। जबकि- नीति निदेशक तत्वों से संबंधित अनुच्छेद 41 में नागरिकों को कुछ दशाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार दिया गया है।
26 जनवरी 1950 को लागू हुआ संविधान
महान स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के सपनों को साकार करने के लिए संकल्प पत्र के रूप में भारत का संविधान 26 नवम्बर 1949 को पूर्ण रूप से बनकर तैयार हुआ था। 389 महान मनीषियों ने इस पर हस्ताक्षर कर इसे भारत की जनता की तरफ से अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया था। 26 जनवरी 1930 को रावी नदी के तट पर पूर्ण स्वराज्य की ऐतिहासिक घोषणा की गई। इसकी महत्ता को भारतीयो में जीवंत रखने के लिए भारतीय संविधान को 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया।
दिखती है यातनापूर्ण संघर्ष की झलक
डा. राजेंद्र प्रसाद, पंडित जवाहरलाल नेहरु, बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर, सरदार बल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और पंडित अलगू राय शास्त्री जैसे 389 संविधानविदों ने मिलकर संविधान बनाया। इसमें लगभग दो सौ वर्षों तक चलने वाली ब्रिट्रिश सरकार के दौरान हमारे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों द्वारा भोगी गई यातनापूर्ण संघर्ष की अनुभूतियों की झलक साफ-साफ दिखाई देती है। यह उसी तरह है जैसे चौदह वर्षीय वनवासी जीवन की अनुभूतियों ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम को जनता की आशाओं, आकांक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप एक आदर्श राज्य (जिसे भारतीय वांगमय में रामराज्य कहा जाता है) स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। हमारे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों ने अपनी यातनापूर्ण अनुभूतियों से प्रेरित होकर भारतीय संविधान को एक ऐसा दस्तावेज बनाया जिसके प्रकाश में भारत को आत्मनिर्भर, सक्षम और शक्तिशाली के साथ-साथ एक आदर्श कल्याणकारी राज्य बनाया जा सके।
संविधान के प्राणवायु हैं मौलिक अधिकार
भारतीय संविधान की प्रस्तावना, संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों तथा नीतियों से एक कल्याणकारी राज्य निर्मित करने की संकल्पना साफ-साफ अभिव्यंजित होती है। हमारे संविधान की प्रस्तावना में ही सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय स्थापित करते हुए हर नागरिक को गरिमामय जीवन सुनिश्चित करना प्रत्येक सरकारो का दायित्व बताया गया है। एमवी पायली सहित अन्य राजनीतिक चिंतको के अनुसार प्रस्तावना, मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्व भारतीय संविधान की प्राणवायु हैं। प्रस्तावना में सरकार और नागरिकों को मार्गदर्शित करने वाले मूल्य, मान्यताएंे, आदर्श और सिद्धांत अंतर्निहित हैं। मौलिक अधिकारों की अनुपालना और नीति निदेशक तत्वों को मूर्त रूप प्रदान कर ही समाज में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित किया जा सकता है।
हिंसात्मक घटनाएं विश्वास की आजादी पर ग्रहण
विगत 75 वर्षों के शासन के दौरान हम प्रस्तावना में वर्णित अभिव्यक्ति, धर्म, उपासना और विश्वास की स्वतंत्रता जैसे मूल्यों को स्थापित करने में कुछ हद तक सफल रहे, परन्तु कभी-कभी साम्प्रदायिक दंगे, हिंसा से परिपूर्ण जातिगत तनाव, माब लिचिंग और कश्मीर सहित पूर्वाेत्तर के राज्यों में होने वाली आतंकवादी घटनाएं अभिव्यक्ति, धर्म, उपासना और विश्वास की स्वतंत्रता पर ग्रहण लगाती हैं। एक वर्ष से अधिक समय तक चले शांतिपूर्ण अहिंसात्मक किसान आन्दोलन के आगे भारत सरकार का जन भावनाआंे का सम्मान करते कदम वापस लेना और प्रधानमंत्री द्वारा क्षमा याचना करते हुए तीनों कृषि कानूनों को वापस लेना हमारी मजबूत लोकतंत्रात्मक व्यवस्था की सफलता की पुष्टि करता है।
पड़ोसी देशों की तुलना में हम हैं सफल
शांतिपूर्ण और अहिंसात्मक धरना, प्रदर्शन, आन्दोलन, अनशन और सत्याग्रह स्वस्थ्य, मजबूत और गतिशील लोकतंत्र की प्राण वायु हैं। जनता को प्रदत्त इन्हीं लोकतांत्रिक अधिकारों के आधार पर वैश्विक स्तर पर श्रेष्ठ लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का आंकलन और मूल्यांकन किया जाता है। अपने पड़ोसी देशांे के साथ हम तुलनात्मक विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप हम एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, पंथनिरपेक्ष और लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने में अपेक्षाकृत सफल रहे हैं।
सुधार की दिशा में हुए कुछ सार्थक प्रयास
स्वाधीनता उपरांत भारत को कल्याणकारी राज्य बनाने की दिशा में कुछ सार्थक प्रयास भी किया गया। भूमि सुधार कानून, जमींदारी उन्मूलन कानून, कारखाना अधिनियम, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम और बैंको का राष्ट्रीयकरण आदि इसकी नजीर हैं। इन समस्त कानूनों के तहत आर्थिक और सामाजिक समानता लाने का प्रयास किया गया। जन कल्याणकारी राज्य बनाने की दिशा में नीति निदेशक तत्व विधायिका और कार्यपालिका के लिए निर्देश हैं। नीति निदेशक तत्वों में स्पष्ट कहा गया है कि राज्य आर्थिक क्षेत्र में एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों को हतोत्साहित करेगा और एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था का निर्माण करेगा जिससे देश की धन-दौलत अधिकतम लोगों तक वितरित हो सके। कल्याणकारी राज्य की दिशा में सर्वाधिक सशक्त भूमिका पंचवर्षीय योजनाओं ने निभाया। समग्र और संतुलित विकास को ध्यान में रखकर संचालित की गई पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने में काफी तक सफलता प्राप्त हुई। बावजूद इसके आज फिर देश में आर्थिक संकेन्द्रण की प्रवृत्तियां बढ रही हैं। यह भारत जैसे कल्याणकारी राज्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। बैंको के राष्ट्रीयकरण ने भी जनकल्याणकारी योजनाएं बनाने में सराहनीय भूमिका का निर्वहन किया। एक स्वस्थ्य और गतिशील लोकतंत्र में सत्ता का विकेन्द्रीकरण एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस दिशा में 73वें और 74वें संविधान संशोधन द्वारा ग्राम पंचायतों और नगर पंचायतो को संवैधानिक दर्जा देना एक ऐतिहासिक कदम था।
निर्णायक नीतियां बनाने की जरुरत
अंततः अभी भी आर्थिक असमानता को कम करने की दिशा निर्णायक नीतियां बनाने की आवश्यकता है। 2010 में शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार की श्रेणी में शामिल कर लिया गया परन्तु व्यवहारिकता के धरातल पर आम आदमी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने में असमर्थ है। आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ने से लोग फिर गरीबी रेखा के नीचे आते जा रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सरकारों द्वारा अत्यधिक संरक्षण देने के कारण भारत के देशज परम्परागत और लघु कुटीर उद्योगों पर खतरा मंडराने लगा है। देशज परम्परागत लघु कुटीर उद्योग आर्थिक विकेन्द्रीकरण के सर्वाधिक सशक्त माध्यम हैं। इसलिए इनका संरक्षण और संवर्धन आवश्यक है। आज फिर से हमें संविधानविदों को स्मरण करते हुए संकल्पित और समर्पित भाव से अपने सामाजिक और नागरिक दायित्वों का पालन करना होगा, तभी उनके सुनहरे सपनों को साकार किया जा सकता है।(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक बापू स्मारक इंटर कालेज दरगाह, मऊ में प्रवक्ता हैं।)