वो नहीं, ये है आजादी...

15 Aug 2016

आज जश्ने आज़ादी लाल किले नहीं उना में मान रहे हैं राउजी

संदीप राउज़ी

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हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की ‘संस्थानिक हत्या’ के बाद अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन की अगुवाई में जो आंदोलन चला उसने दलित चेतना को एक नए धरातल पर ला खड़ा किया है। इस आंदोलन ने राजनीतिक अवसरवादिता के घटाटोप में हाशिये पर पहुंचे ‘जाति उन्मूलन’ के एजेंडे को फिर से मोर्चे पर खड़ा कर दिया, लेकिन उना की घटना के विरोध में जिस तरह दलित समुदाय ने एकजुट होकर अहमदाबाद में अपना सशक्त प्रतिरोध दर्ज कराया है, उससे दलित आंदोलन के और मूल प्रश्न केंद्र में आ गए हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीतिक विश्लेषक इसके असर को एक राजनीतिक साठगांठ और सत्ता विमर्श के चश्मे से देखने की भरसक कोशिश कर रहे हैं, लेकिन इसका दायरा और लक्ष्य उससे कहीं ज़्यादा व्यापक होने वाला है। हम समझते हैं कि उना दलित अत्याचार लड़त समिति (उदाल्स) के बैनर तले 31 जुलाई को अहमदाबाद में हुआ विशाल प्रदर्शन, इसमें उठी मांगें और घोषणाएं, देश के अंंदर दलित आंदोलन के लिए कुछ अहम संदेश देने में क़ामयाब रही हैं। उदाल्स के संयोजक जिग्नेश मेवानी ने इस दलित महासम्मेलन में जो भाषण दिया और अन्य समुदायों ने जिस संजीदगी से अपना समर्थन दिया उसके मायने दिन के उजाले की तरह बिल्कुल साफ हैं।
एक अम्बेडकराइट और प्रगतिशील सामाजिक कार्यकर्ता के लिए इसके पांच अहम संदेश हैं। पहला, मुस्लिम संगठनों ने जिस तरह खुलकर दलित मुद्दे पर अपना समर्थन दिया और जमात ए उलेमा ए हिंद (गुजरात) के नेता साथ आए उससे ये साफ संदेश जाता है कि हिंदू फासीवादी राजनीति का मुकाबला करने के लिए अगर किसी विचारधारा में दम है तो वो है अम्बेडकरवादी राजनीति। प्रदर्शन के दौरान अक्षरधाम हमले में आरोपी बनाए गए और बाद में रिहा हुए मुफ़्ती अब्दुल कय्यूम मंसूरी, वकील शमशाद पठान, गुजरात दंगे के पीड़ितों के लिए काम करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता दिवंगत मुकुल सिन्हा की पत्नी निर्जरी सिन्हा, बर्खास्त किए गए आईपीएस अधिकारी राहुल शर्मा का मंच पर होना बताता है कि ज़मीनी धरातल पर दलित मुस्लिम समुदायों में एक समझदारी विकसित हो रही है। गुजरात में दलितों की आबादी 7 प्रतिशत और मुस्लिम आबादी क़रीब 9.3 प्रतिशत है। इस लिहाज से भी यह गठबंधन 17 प्रतिशत बैठता है। ये बहुत बड़ी आबादी है। दूसरा, दलित अपने ऊपर लादे गए सनातनी कामों- मरे जानवर उठाना, सीवर साफ करना और ऐसे कोई काम नहीं करेंगे, इसकी घोषणा करना। ये काम चूंकि दलितों के जिम्मे हज़ारों सालों से रहा है इसलिए हिंदू स्टेट ने कभी इसमें तकनीक लाने की कोशिश भी नहीं की। आज भी सीवर सफाई में सफाई कर्मचारियों की जानें जाती हैं। तीसरा, हिंदूवादियों के अत्याचारों का मुकाबला करने के लिए लाइसेंसी बंदूकें दिए जाने की मांग करना. ये दिखाता है कि दलित नेतृत्व को अहिंसा का मतलब समझ आ गया है। कमजोरी के चलते मार खाना और सबल होकर हथियार न उठाना, इन दोनों में फर्क है। चौथा, ज़मीनों के बंटवारे की मांग करना ताकि दलित आबादी को इस गंदे पेशे को छोड़कर सम्मानजनक जीवन जीने का आधार मिले। लैंड सीलिंग एक्ट के तहत जो क़ानूनी तरीक़े से ज़मीनें मिलनी चाहिए, वो आज भी नहीं मिलीं।ये हाल पूरे देश में है। धरती बांटने का सवाल दलित आंदोलन के मूल प्रश्नों में से एक है। इसे आज नहीं तो कल हल करना ही होगा। ज़मीनों पर एकतरफा कब्जा सामंतवादी मूल्यों का सबसे बड़ा स्रोत है। और पांचवां, समुदाय के ऊपर अबतक हुए अत्याचारों का हिसाब देने की मांग की गई. 2012 में सुरेंद्र नगर ज़िले के थानगढ़ में तीन नौजवानों को मार डाला गया था। उना की घटना के कुछ ही दिन पहले वहां से कुछ ही दूरी पर खाल निकालते कुछ दलितों को इसी तरह पीटा और फिल्माया गया था। कुछ महीने पहले अम्बेडकर पर छपी लाखों किताबों को गुजरात सरकार ने वापस ले लिया था। बात उठी है तो दूर तलक जाएगी। 15 अगस्त को इधर लाल किले पर नरेंद्र मोदी लाल किले से भाषण से अपने मन की बात कर रहे हैं, उधर दलितों का एक जत्था अहमदाबाद से चल कर उना पहुंच गया है। 30,000 लोग एक ऐतिहासिक मार्च के अंतिम दिन आए हैं। अब बात सिर्फ सम्मेलन तक नहीं रह गई है। इनसब का उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनावों पर कितना असर पड़ेगा, अभी इसे राजनीतिक विश्लेषकों पर छोड़ते हैं लेकिन आंदोलन का प्रसार उन इलाक़ों तक होगा, इतना तो तय है।
(यह लेखक का विश्लेषण है। लेखक दैनिक जागरण, पंजाब केशरी सहित विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में वरिष्ठ पत्रकार के रूप में कार्य कर चुके हैं)



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