जेएनयू : कन्हैया की गिरफ्तारी उचित या अनुचित!

17 Feb 2016

भारत माता इतना कमजोर नहीं हैं कि कुछ समाजविरोधी या राष्ट्रविरोधी नारे से वह बिखर जाएंगी। भारत जैसे देश में अलग-अलग विचार रखना देशद्रोह नहीं है। भारत के अलग-अलग हिस्सों में अनेक लोगों की राय बहुसंख्यक नजरिए के खिलाफ है, लेकिन इसको देशद्रोह नहीं माना जा सकता।

लालजी यादव
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नई दिल्ली के प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में देश के खिलाफ चंद लोगों द्वारा नारेबाजी के बाद राजनीतिक विवाद का दौर चल पड़ा है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर छात्र पाकिस्तान के पक्ष में नारे या कश्मीर की आजादी का समर्थन करें, लेकिन इसी आधार पर राष्ट्र विरोधी गतिविधियां मान लेना सही नहीं है। भारत माता इतना कमजोर नहीं हैं कि कुछ समाजविरोधी या राष्ट्रविरोधी नारे से वह बिखर जाएंगी। भारत जैसे देश में अलग-अलग विचार रखना देशद्रोह नहीं है। भारत के अलग-अलग हिस्सों में अनेक लोगों की राय बहुसंख्यक नजरिए के खिलाफ है, लेकिन इसको देशद्रोह नहीं माना जा सकता। बेशक विश्वविद्यालय में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों की अनुमति नहीं दी जा सकती।
वर्तमान हालात पर गौर करें तो केंद्र की सत्ता में भाजपा के आने के बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) की सक्रियता कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। जिन छात्रों ने देश विरोधी नारे लगाए उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करनी चाहिए। इस मामले की एबीवीपी के छात्रों ने दिल्ली के वरिष्ठ भाजपा नेताओं से शिकायत की थी तो उनके समाधान के लिए लोकतंात्रिक तरीके निकाले जा सकते थे, पर उसके बजाय केंद्रिय सत्ता से शिकायत की गई। गौरतलब है कि एबीवीपी एक बहुत पुराना संगठन है। यह बेहद प्रभावशाली संगठनों में से है। शिक्षा परिसरों में राजनीतिक लड़ाइयां खुद लड़ी जाती हैं, लेकिन भाजपा की केंद्र में सत्ता में आने के बाद यह संगठन उसकी मदद से मजबूत होना चाहता है। एबीवीपी के खुली विचारधारा का विरोधी होने के कारण जेएनयू में पूरी तरह वर्चस्व हासिल कर पाना उसके लिए अब तक कठिन रहा है। जेएनयू में नारेबाजी को देशद्रोह का मुद्दा बना चुकी भाजपा, अकेले पड़ती जा रही है। जिससे संसद के बजट सत्र से पहले राजनीतिक मुश्किलें बढ़ने की आशंका है।
देश में अर्थ व्यवस्था का हाल बुरा है। ऐसे में जरुरी सुधारों के बारे में सोचने की बजाय जेएनयू मुद्दा पर आक्रामक रुख से भाजपा के विरोध में धु्रवीकरण राजनीतिक परिस्थति उत्पन्न हो सकती है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि भाजपा संभवतः अगले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव को देखते हुए भी लगी हो सकती है। ये बड़े शर्म की बात है कि आज एबीवीपी अपने मीडिया सहयोगियों से पूरे मामले को डायलूट कर रहा है। देश के खिलाफ जिस वीडियो फुटेज को टीवी चैनलों पर दिखाया जा रहा है, उसमें मौजूदगी का साक्ष्य उपलब्ध न होने के बाद भी जेएनयू के छा़त्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी को जायजा नहीं ठहराया जा सकता। गिरफ्तारी की बजाय इस मामले की गहनता से छानबीन होनी चाहिए थी। साथ ही जिन छात्रों पर शंका बनती, पुलिस उनसे बुलाकर पूछताछ कर सकती थी। हद तो बुधवार को जनता की मदद करने को कोर्ट में मौजूद रहने वाले कानूनी जानकारों ने कर दी। संविधान की अनदेखी कर वकीलों द्वारा पटियाला हाउस कोर्ट में पेशी पर आए छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया की पिटाई करने को किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। कन्हैया का अपराध बनता है या नहीं, यह फैसला साक्ष्य के आधार पर न्यायालय को करना है। अधिवक्ताओं को यदि अपनी दलील रखनी ही थी तो वे न्यायालय में सुनवाई के दौरान भी रख सकते थे।
( यह लेखक के अपने विचार हैं। लेखक वर्तमान में शिक्षक हैं। वह गोरखपुर विश्वविद्यालय के सक्रिय छात्रनेता व पंजाब केसरी समाचार पत्र में जालंधर में सह संपादक भी रह चुके हैं।)



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