मऊ के लाल : सरकार भी लेती है प्रो.गुरुप्रसाद सिंह की सलाह 

02 Aug 2022

---बुलंद आवाज विशेष---
-बीएचयू में तीन दशक से दुग्ध विज्ञान एवं खाद्य प्रौद्योगिकी के हैं प्रोफेसर
-नेशनल कोआपरेटिव आफ इंडिया के सलाहकार की भी निभा रहे जिम्मेदारी
-विश्व हिन्दू परिषद के गोरक्षा विभाग के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर हैं आसीन
-गोवंश आधारित उद्योग का गहरा अध्ययन, जन्मभूमि पर उतारने की ललक  

बृजेश यादव 
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मऊ :
बुलंद आवाज के विशेष कालम मऊ के लाल के तहत आज हम परिचित करा रहे हैं प्रोफेसर गुरुप्रसाद सिंह से। प्रो.सिंह वह शख्सियत हैं, जिनसे भारत सरकार भी सलाह लेती है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में 30 साल से दुग्ध विज्ञान एवं खाद्य प्रौद्योगिकी में सेवारत प्रो. सिंह नेशनल कोआपरेटिव यूनियन आफ इंडिया के सलाहकार की भी जिम्मेदारी निभा रहे हैं। वह विश्व हिन्दू परिषद के गौरक्षा विभाग के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद का भी बखूबी निर्वहन कर रहे हैं। गांवों में ही गोवंश आधारित उद्योग से खुशहाली लाने पर उनका गहरा अध्ययन है। सेवानिवृत्ति के बाद अपनी जन्मभूमि पर इस उद्योग को चरितार्थ कर पूर्वांचल के खोये गौरव को हासिल करने की उनके मन में ललक है। 
मिल चुका है यूपी गौरव का पुरस्कार 
प्रोफसेर गुरुप्रसाद सिंह को गोवंश रक्षा के क्षेत्र में तीन पुरस्कार भी हासिल हो चुके हैं। सबसे पहला पुरस्कार उन्हें वर्ष 2014 में गोरत्न का मिला। यह पुरस्कार गोवंश रक्षण संवर्धन परिषद छत्तीसगढ़ ने दिया। दूसरा पुरस्कार उन्हें 2018-2019 में बाबा हरदेव सिंह द्वारा स्थापित संस्था ने दिया। इस संस्था ने उन्हें राजेंद्र प्रसाद गोरक्षा पुरौधा पुरस्कार से सम्मानित किया। वर्ष 2019-20 में प्रगति पर्यावरण संस्थान ने उन्हें यूपी गौरव के सम्मान से नवाजा। 
यूपी में दुग्ध कंपनियां लाने का श्रेय 
हाल के दो-चार वर्षों में यूपी में अन्य प्रांतों की दुग्ध कंपनियां लाने का श्रेय भी प्रो. सिंह को हासिल है। यह तब संभव हुआ जब वर्ष 2017 से 2021 तक वह गुजरात में स्थित नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड के एक्सपर्ट डायरेक्टर बने। प्रो.गुरु प्रसाद सिंह के रुप में इस बोर्ड में कोई पहला व्यक्ति हिन्दी भाषी क्षेत्र का डायरेक्टर बना। कृषि मंत्री राधामोहन सिंह के समय डायरेक्टर बनने के बाद उन्होंने डेयरी कंपनियों को यूपी में लाने की दिशा में पृष्ठभूमि बनाई। इसका असर यह रहा कि हाल के वर्षों में मदर डेयरी, पराग डेयरी जैसी कंपनियां उत्तर प्रदेश में आईं। साथ ही काशी मिल्क जैसी कंपनियां शुरु हुईं।  
एक गांव होगा एक उत्पाद का केंद्र 
प्रो.सिंह का मानना है कि गोवंश और कृषि आधारित बेहतर व्यवसाय अपनाकर गांव में भी खुशहाल रहा जा सकता है। बशर्ते इसे योजनाबद्ध तरीके से अपनाना होगा। नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद अपनी जन्मभूमि पर एक गांव-एक उत्पाद की योजना के जरिये उद्योग से लोगों को जोड़ने की उन्होंने रणनीति बना रखी है। उद्योग की योजना को उन्होंने विस्तार देते हुए बताया कि सभी लोग दूध ही बेचेंगे, इस प्रवृत्ति को बदलना होगा। उनकी योजना है कि एक गांव के लोग दूध से घी बनाकर बेचें। दूसरे गांव के लोग पनीर बनाकर बेचें। तीसरे गांव के लोग गाय के गोबर से केंचुआ बनाकर बेचें। चौथे या अन्य गांव के लोग गोबर से बनने वाली धूपबत्ती, अगरबत्ती, मूर्तियां बनाकर बेचें। इसके अलावा गाय के मूत्र से बनने वाली तमाम औषधियां भी अलग-अलग गांव के लोग बना सकते हैं। कोई गांव गन्ने का सिरका बना सकता है तो कोई दूध से लस्सी। इससे हर गांव अलग-अलग उत्पाद का केंद्र होगा। उनका उत्पाद देश से लेकर विदेश तक बिकेगा और अच्छी आय होने लगेगी। 
रुकेगा पलायन, आय में भी होगी वृद्धि 
प्रो. सिंह ने बुलंद आवाज के एक सवाल के जवाब में कहा कि गांवों में खेती-बारी-गोरुवारी की कहावत आज भी प्रचलित है। इनमें से एक भी खत्म हुआ तो दो अपने आप खत्म हो जाएंगे। उन्होंने गांव के युवकों के खेती व पशुपालन से मोहभंग होने के पीछे की वजह बताते हुए कहा कि जिस दिन गांव में ही एक दिन में पांच सौ रुपये की आय सुनिश्चित हो जाएगी, उस दिन पलायन रुक जाएगा। उन्होंने कहा एक गांव-एक उत्पाद इसमें काफी कारगर साबित होगा। उदाहरण देते हुए कहा कि गांव में गाय के एक लीटर दूध के 40 रुपये मिलते हैं, जबकि 25 से 30 लीटर दूध में एक किलो घी तैयार होता है। देशी घी मार्केट में 15 सौ रुपये किलो आसानी से बिक जाएगा। इसके अलावा पीने को छाछ अलग से मिलेगा। गाय के एक किलो गोबर से दो किलो केंचुआ तैयार होते हैं। केंचुआ 50 रुपये किलो बिकते हैं। ऐसे में एक किलो गोबर में सौ रुपये के कुंचुआ तैयार हो जाएगा। इसी तरह से उन्होंने पनीर, लस्सी व अन्य उत्पादों के लाभप्रद उद्योग बनने की जानकारी दी। यह भी कहा कि इन उत्पादों को तैयार करने में बिजली या अन्य किसी भी प्रकार के महंगे संसाधन की जरुरत नहीं है। गाय का मूत्र का अर्क तो हर घर में बन सकते हैं। 
बाहर से गाय की बजाय लाएं सांड़ 
पूर्वांचल में हरियाणा व गुजरात से लाई जाने वाली गायों के लंबे समय तक जीवित न रहने के सवाल पर उन्होंने बताया कि उन प्रांतों का वातावरण पूर्वांचल से भिन्न है। ऐसे में दूसरे प्रांत से यहां हजारों मील ट्रकों से आने वाली गायें एकाएक अर्जेस्ट नहीं कर पातीं और दम तोड़ने लगती हैं। उन्होंने कहा कि अधिक दूध देने वाली गायों की अपेक्षा यहां उनकी नस्ल के सांड़ को लाना चाहिए। सांड़ से कुछ सालों में यहां के वातावरण में पलने वाली गायों की बछिया का नस्ल परिवर्तन हो जाएगा। वह भी अधिक दूध देने लगेंगी। 
चाचा की वजह से की कृषि की पढ़ाई 
प्रोफेसर गुरुप्रसाद सिंह का जन्म 20 अप्रैल 1964 को शहर से सटे ताजोपुर गांव में हुआ। वह स्वर्गीय सीताराम सिंह के चार बेटों में दूसरे स्थान पर हैं। उनकी कक्षा एक से पांच तक की पढ़ाई प्राथमिक विद्यालय परदहां में हुई। उनके चाचा जगरनाथ सिंह टीडी महाविद्यालय जौनपुर में कृषि के प्रवक्ता रहे। कक्षा पांच पास करने के बाद गुरुप्रसाद को अपने साथ वह वहीं लिवा गये। उनके पास ही रहकर उन्होंने टीडी इंटर कालेज से छह से 12वीं तक पढ़ाई की। इसके बाद टीडी महाविद्यालय से एग्रीकल्चर से बीएससी उत्तीर्ण किया। इसके बाद चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय कानपुर से उन्होंने एमएससी एजी किया। 
1992 में बन गये असिस्टेंट प्रोफेसर 
प्रो.सिंह वर्ष 1992 में बीएचयू के कृषि विज्ञान संस्थान में असिस्टेंट प्रोफेसर बने। 2009 में प्रोन्नति पाकर वह प्रोफेसर बने। दुग्ध विज्ञान एवं खाद्य प्रौद्योगिकी में आज तक सेवारत हैं। प्रो.सिंह बताते हैं कि उनके पिताजी किसान थे। खेती-किसानी के परिवार से जुड़े होने व चाचा के कृषि के ही प्रवक्ता होने के चलते उन पर इसी विषय को अपनाकर कैरियर बनाने की छाप पड़ी। उनका दावा है कि गाय के आधार पर ग्रामीण उद्योग स्थापित कर लोगों का आर्थिक उत्थान किया जा सकता है। 
 



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