इस सिद्धांत पर हो अमल तो थम जाए सरहदों पर तनाव

06 May 2022

-विश्व युद्ध की आशंका भी हो सकती है सदा के लिए समाप्त

मनोज कुमार सिंह

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मऊ : महात्मा बुद्ध द्वारा प्रतिपादित पंचशील के सिद्धांत पर चल कर ही सरहदों के तनाव से मुक्ति व विश्व युद्ध की आशंकाओं को समाप्त किया जा सकता है। तनाव और युद्ध को रोकने का एकमात्र विकल्प है पंचशील का सिद्धांत। खून की प्यासी दुनिया को सत्य, अहिंसा और करूणा से अभिसिंचींत करना चाहते थे महात्मा बुद्ध।

राह दिखाते रहेंगे बुद्ध के विचार

भारत में प्रथम सामाजिक क्रांति के प्रणेता युग प्रवर्तक महात्मा बुद्ध के कालजयी विचार और दर्शन वैश्विक मानवता को सर्वदा और सर्वत्र राह दिखाते रहेंगे। त्याग, तपस्याओं और साधनाओं के फलस्वरूप प्राप्त ज्ञान, दर्शन और विचार सार्वभौमिक और सर्वकालिक होते हैं। उनकी गूंज और गंध दूर गगन तक लोकमानास में युगों-युगों तक कायम रहती है। अब से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व मानवता को सुरक्षित,संरक्षित और भलीभाँति संचालित करने के लिए महात्मा बुद्ध ने जो ज्ञान, दर्शन और विचार दिया उसकी गूंज से आज भी सम्पूर्ण विश्व अनुगूँजित हो रहा है। उसकी सुगंध से सारा वातावरण आज भी महक रहा है।

भविष्यवाणी से चिंतित थे पिता

अपने इकलौते बेटे को अपने राज-पाठ का उत्तराधिकारी और चक्रवर्ती सम्राट बनाने की प्रबल इच्छा रखने वाले राजा शुद्धोधन को ज्योतिषाचार्यो की सिद्धार्थ के संन्यासी बनने की भविष्यवाणी ने बुरी तरह भयभीत कर दिया। इसलिए राज-पाठ का मोह रखने वाले राजा ने बालक सिद्धार्थ के पालन पोषण में और राजसी गुणों के अनुरूप शिक्षित प्रशिक्षित करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। बेटे सिद्धार्थ के मन में वैराग्य और सन्यास का भाव कभी उत्पन्न न होने पाए इसके लिए राजा शुद्धोधन ने यथाशक्ति प्रयास किया। बालक सिद्धार्थ का मन भोग-विलास और सांसारिक जीवन में रमा रहे इसके लिए राजा ने ॠतुओ को ध्यान में रखकर महल बनवाया।

सिद्धार्थ को नहीं भायी विलासिता

रोते, बिखलते निराश हताश मनुष्य के हृदय में आशा विश्वास और उम्मीद की दीपशिखाऐं ( आत्मदीपो भव) प्रज्वलित करने की उत्कट अभिलाषा रखने वाले सिद्धार्थ के मन को राजमहल की भव्यता, विलासिता और उसका ऐश्वर्य तनिक भी नहीं भाया। एक पिता की दृष्टि से राजा शुद्धोधन ने अपने पुत्र की प्रतिभा और विलक्षणता को कभी जानने समझने का प्रयास ही नहीं किया बल्कि हर पल एक राजा की तरह अपने पुत्र में अपने राज पाट का उत्तराधिकारी देखते रहे। इसलिए परम्परागत राजसी रंग-ढंग में सिद्धार्थ को ढालने के लिए राजा शुद्धोधन ने राज दरबार को नृत्य, संगीत और अन्य मनमोहक मनोरंजन के विविध संसाधनों और सामग्रियों से सुसज्जित कर दिया। सिद्धार्थ के भरपूर मनोरंजन के लिए उस दौर के देश भर के संगीतज्ञ और नृत्यांगनाए बुलाई गईं। परन्तु संगीत की स्वरलहरियों और वीणा और अन्य वाद्ययंत्रों की झंकारों में सिद्धार्थ को चीखों, चिल्लाहटों, आहों और कराहों के शोर सुनाई दे रहे थे।

नहीं रिझा पाईं सुन्दरियां

सुन्दरियों का सौन्दर्य और नृत्यांगनाओं की मनमोहक अदाएं भी सिद्धार्थ के मन को नहीं रिझा पाई । सिद्धार्थ के बचपन की घटनाओं का गम्भीरता से अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होता है कि उनका हृदय बचपन से ही प्रेम, परोपकार, दया और करूणा से परिपूर्ण था। उनके हृदय में शोषित और दुखित जनता का दुःख दर्द दूर करने की गहरी बेचैनी और व्याकुलता हिलोरे ले रही थी। इसलिए अपने सारथी चेन्ना के साथ भ्रमण करते समय क्रमशः तीन दृश्यों वृद्ध ,रोगी और शवयात्रा को देखकर अत्यंत विचलित और व्यथित हुए। गृहस्थ जीवन त्याग कर सन्यास लेने का कठिन निर्णय लिया। इन दृश्यों ने सिद्धार्थ के मन मस्तिष्क और हृदय को उद्वेलित कर दिया। महात्मा बुद्ध का हृदय मानव जीवन की सच्चाईयों और वास्तविकताओं से साक्षात्कार करने के लिए व्यग्र और व्याकुल हो उठा। करूणा के अथाह सागर में पूरी तरह डूबी उनकी आंखों में वह समंदर तैरने लगा जो रोती, बिलखती, चीखती मानवता के आंसुओं से एकत्रित कर बना था।

29 वर्ष की अवस्था में छोड़ दिया घर-बार

सिद्धार्थ 29 वर्ष की उम्र में अपनी अत्यंत सुन्दर पत्नी यशोधरा और दुधमुंहे बेटे राहुल को रात के सन्नाटे में छोड़कर दुःख दर्द का कारण और दुःख दर्द को दूर करने का सर्वाधिक कारगर और सर्वव्यापी औजार खोजने के लिये निकल पड़े। बौद्ध साहित्य और बौद्ध इतिहास में इस घटना को महाभिनिष्क्रमण कहा जाता है। 12 वर्ष की कठिन साधना के बाद निरंजना नदी के तट पर शाक्य गणराज्य के राजा शुद्धोधन का इकलौता बेटा सिद्धार्थ बोधि वृक्ष के नीचे दिव्य ज्ञान प्राप्त कर महात्मा बुद्ध बन गया। एक राजा के बेटे में यह परिवर्तन महज एक व्यक्तित्व का परिवर्तन नहीं था बल्कि यह परिवर्तन मानवता की दृष्टि से मील का पत्थर साबित हुआ।

पूरी दुनिया हुई नतमस्तक

महात्मा बुद्ध ने बोधगया में जो ज्ञान प्राप्त किया उसके प्रताप के समक्ष पूरी दुनिया नतमस्तक हुई। उस ज्ञान की रोशनी से सारी मानवता आज भी रोशनगर्द हो रही है। महात्मा बुद्ध के शुद्ध अंतःकरण से उपजे विचार और दर्शन भविष्य में भारतीय वसुन्धरा पर होने वाले अनगिनत  सामाजिक परिवर्तनों, सामाजिक सुधारों और सामाजिक क्रांतियों की आधारशिला बने। चार्वाक दार्शनिकों को छोड़कर महात्मा बुद्ध के पूर्ववर्ती कुछ दार्शनिकों ने मानव जीवन को तुच्छ , क्षणभंगुर और नश्वर बताया था। परन्तु महात्मा बुद्ध ने अपने क्षणिकवाद के दर्शन द्वारा मानव जीवन के हर क्षण की महत्ता को रेखांकित किया। क्षणिकवाद के अनुसार मनुष्य का व्यक्तित्व हर क्षण बदलता है। जिस तरह से दीपक की लौ प्रतिक्षण बदलती रहती है और जैसे नदी की जलधारा प्रतिक्षण बदलती रहती है उसी तरह मानव जीवन भी प्रतिक्षण बदलता रहता है।

मील का पत्थर बना पंचशील सिद्धांत

महात्मा बुद्ध ने जीवन को क्षणभंगुरता का पाठ पढ़ाने वाले विचारकों  को करारा जवाब देते हुए विचार दिया था कि एक क्षण मात्र में सदियों का इतिहास बनाने और बदलने की सामर्थ्य होती है। इसलिए हर इंसान को अपने जीवन के हर क्षण को पूरे उत्साह उर्जा और उल्लास के साथ जीना चाहिए। प्रकारांतर से मनुष्य के जीवन का हर क्षण महत्वपूर्ण और मूल्यवान है। व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन में सुख, शांति और समृद्धि सर्वदा कायम रहे, इसके लिए महात्मा बुद्ध ने पंचशील ( आचरण के पाॅच सिद्धांत- सत्य, अहिंसा, अपरिग्र्ह अचौर्य और ब्रह्मचर्य ) का सिद्धांत प्रस्तुत किया। महात्मा बुद्ध के इसी  पंचशील के सिद्धांत को संशोधित कर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने वैश्विक रंगमंच पर प्रस्तुत किया । द्विपक्षीय और बहुपक्षीय संबधो और संधियों की दृष्टि से पंचशील का सिद्धांत मील का पत्थर साबित हुआ।

तिब्बत से जुड़े समझौते पर हुआ लागू

सर्वप्रथम तिब्बत से जुड़े एक समझौते में भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और चीन के राष्ट्रपति चाऊ एन लाई ने 1954 मे पंचशील के सिद्धांतों का पूरी तरह से पालन करने के लिए समझौता किया। कालान्तर में एशिया और अफ्रीका के लगभग सभी देशों ने अन्तर्राष्ट्रीय संबंधो और संधियों की दृष्टि से पंचशील के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया। विश्व शांति और विश्व बंधुत्व की   स्थापना में पंचशील का सिद्धांत अत्यंत लोकप्रिय और कारगर सिद्धांत बन गया जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत की महत्वपूर्ण देन है। महात्मा बुद्ध ने अहिंसा के विचार से न केवल मानवता की रक्षा की अपितु भारत में खेती किसानी को भी बचाने का श्लाघनीय प्रयास किया। उनके मन मस्तिष्क में अहिंसा का विचार मात्र उनके अंतःकरण से उपजा हुआ विचार नहीं था बल्कि उस समय की परिस्थितियों की कोख से उपजा विचार भी था। क्योंकि उत्तर वैदिक काल में कर्मकाण्ड और पाखंड अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गये थे । जो पशु खेती किसानी के कार्यों में मनुष्य के सहायक हो सकते थे उनकी पुण्य प्राप्ति के लिए यज्ञवेदियों पर निर्ममता से बलि दे दी जाती थी।

दार्शनिकों ने दी महामानव की संज्ञा

महात्मा बुद्ध ने अपने अहिंसा के महान विचार द्वारा न केवल घृणित और घिनौनी बलि प्रथा पर लगाम लगाई बल्कि भारत की खेती किसानी को भी बचाने का प्रयास किया। उत्तर वैदिक काल तक आते-आते भारतीय समाज में अनगिनत कुरीतियां और कुप्रथाएं समाहित हो गई थीं। भारतीय समाज बुरी तरह विभाजित, विखंडित और विश्रृखंलित हो चुका था। ऐसे समय में सामाजिक जन जीवन में सृजनात्मक, सकारात्मक और रचनात्मक सोच तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न कर तथा दया करूणा परोपकार का उपदेश देकर स्वस्थ्य, समरस, समतामूलक और सहिष्णु समाज बनाने के लिए अद्वितीय प्रयास किया। इस दौर के  ईर्ष्या द्वेष घृणा हिंसा और प्रतिहिंसा पर आधारित समाज में महात्मा बुद्ध का सत्य अहिंसा और करूणा का विचार आज भी प्रासंगिक है। महात्मा बुद्ध के व्यक्तित्व और विचारों को हम जितना ही गहराई से समझने का प्रयास करेंगे उतना ही हम हिंसा मुक्त बेहतर समाज बनाने का प्रयास करते हैं। जर्मनी के दो दार्शनिकों नीत्शे और शोपेनहाॅवर ने महात्मा बुद्ध को पृथ्वी का महामानव कहा था। इस महामानव के विचारों को आत्मसात कर ही मानवता अमन शान्ति और तरक्की लाई जा सकती है। (यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक बापू स्मारक इंटर कालेज दरगाह, मऊ के प्रवक्ता हैं।)



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