कैसे बढ़े देश, जब बुद्धिजीवियों की पंसद हो विदेश

17 Dec 2021

---आईना---
-साक्षर श्रमजीवी का सभी करें सम्मान तो हो जाएगा हिंदुस्तान का उत्थान
-समाज सुधार को अग्रणी भूमिका में निभाने वाले ही बन गये काले अंग्रेज

डा. गंगा सागर सिंह
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मऊ : हमारे देश में बुद्धिजीवियों की कमी नहीं है। उनके अंदर वह माद्दा भी है कि देश को उत्थान की राह पर लेकर चल दें, लेकिन अफसोसजनक यह कि देश कैसे बढ़े, जब बुद्धिजीवियों की पहली पंसद विदेश हो। हिंदुस्तान का उत्थान उसी दिन से होना शुरु हो जाएगा जब साक्षर श्रमजीवियों का सम्मान होने लगे। एक हजार साल की गुलामी ने देश को बर्बाद तो किया ही, आजादी के बाद समाज सुधार की अग्रणी भूमिका निभाने वाले काले अंग्रेज बन गये। देश के विकास की बजाय खुद के विकास को प्राथमिकता देने लगे।
विकास में रहा है विशेष योगदान
बुद्धिजीवी वर्ग अनादिकाल से विश्व का सबसे समझदार एवं जिम्मेदार तबका रहा है। भारतीय सभ्यता एवं सांस्कृतिक विकास में इस वर्ग का विशेष योगदान रहा है। प्राचीन भारतीय सभ्यता में चार वर्णों में से ब्राह्मण बुद्धिजीवी वर्ग में थे। समाज की संरचना एवं शिक्षा की जिम्मेदारी ब्राह्मण समाज पर थी।
निर्णय में मुख्य भूमिका थी राजगुरु की
ऋषि-मुनि एवं राजगुरू कुछ अपवाद को छोड़कर अधिकांश ब्राह्मण थे। राजगुरू सांस्कृतिक निर्णयों में मुख्य भूमिका निभाते थे। एक हजार वर्ष की गुलामी ने पूरा परिदृश्य बदल दिया । भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को गुलामी में अपूर्णनीय क्षति पहुंचाकर हमारी पहचान मिटाने की भरपूर कोशिश की गयी। बहुत हद तक वह सफल रहे, लेकिन हमारी संस्कृति एवं सभ्यता के अस्तित्व को पूर्ण रूप से मिटाने में वे आततायी असफल रहे।
राजनीतिज्ञों ने बना लिया राजघराना
बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि स्वतंत्रता के बाद कथित बुद्धिजीवी गोरे अंग्रेजों का स्थान लेकर काले अंग्रेज बन गये। अनपढ़ आम जनता का बहुत ज्यादा शोषण किया। प्राचीन भारतीय संस्कृति के विकास के लिए कोई प्रयास नहीं किया, केवल बहुमत की अंकगणित के भ्रमजाल में फंसे रहे । राजनीतिज्ञ, राजघराने बन गये। उपलब्ध बजट के अनुरूप विकास नहीं कर पाए। आम जन की जगह अपना विकास कर भविष्य की सात पीढ़ियों के लिए धन इकट्ठा करने की मृगतृष्णा में फंसकर देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ करते रहे।
नये अवतार करते रहे शोषण
साक्षरता बढ़ने के साथ-साथ बुद्धिजीवियों के नये-नये अवतार पैदा होते गये। कम पढ़े-लिखे लोगों का शोषण करते रहे। सरकारी कर्मचारी, प्रशासनिक अधिकारी, राजनीतिज्ञ एवं उनके छुट भैया समर्थक, नेता एवं सबसे खतरनाक दलाल वर्ग के अधिकांश लोग बुध्दिजीवी बनकर (कुछ ईमानदारों को छोड़कर) देश एवं समाज के त्वरित विकास में रोड़ा बनकर उभरे।
अयोग्य बुद्धिजीवियों की फौज
नये-नये शिक्षण संस्थानों के खुलने के साथ नये-नये प्रोफेशनल्स बुद्धिजीवी पैदा हुए। उनका भी योगदान संतोषजनक नहीं रहा, क्योंकि शासन- प्रशासन के तानाशाही रवैये के कारण वह विदेश पलायन कर गये। वह सिलसिला अभी भी कायम है। प्रोफेशनल्स की प्रथम वरीयता आज भी स्वदेश नहीं बल्कि विदेश है। कुकुरमुत्ते की तरह उगते जा रहे नये-नये शिक्षण संस्थानों ने कुछ अपवाद को छोड़कर अयोग्य बुद्धिजीवियों की फौज खड़ी कर दी। उन्हे श्रमजीवी बनने से हतोत्साहित कर सुरसा के मुख की तरह बढ़ती बेकारी की समस्या को जन्म दिया। साक्षर श्रमजीवी बेहतर भारत निर्माण के लिए मील का पत्थर साबित होंगे, बशर्ते प्रबुद्ध उनका सम्मान करें। सरकारी तंत्र श्रम की कीमत को बढ़ाकर उनको गरीबी के अभिशाप से मुक्त करने का संकल्प लेकर देश के विकास को गति प्रदान करे। (यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के मऊ के अध्यक्ष हैं।)



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